Wednesday, September 17, 2014

जिंदगी

जिंदगी किराए का घर है एक दिन छोड़ कर जाना पड़ेगा।
साँसों की किस्त पूरी होते ही ,जिस्म को अलविदा करना पड़ेगा।
करोड़ों की कमाई किसी काम नही आएगी,
क्योंकि मौत तो रिश्वत लेती नहीं।

किस बात का अहंकार के साथ जीते हो?
यह तो वो धूल है जिसको मिट्टी में मिलना है ।
मत रखो राग द्धेष किसी से, अंत में अकेले जाना है,
जिस तरह आए थे इस दुनिया में उसी पल जाना है।

उद्धेश्य जीवन का जानो, अपने आप को पहिचानो,
अपने अच्छे कर्मों से किसी के जीवन में खुशियाँ भर दो।
सेवा भाव ही मनुष्यता के लिए समर्पण सिखाती है,
याद रखिए सिर्फ दुवाएं हर बार साथ निभाती है।

भौतिकता की चमक आंखे कमजोर कर देती है,
इस चकाचौंद में फिर अंधे फिरे घूमते हैं।
सच्चाई तो कहीं नजर आते नहीं,
बस ख़यालो के समुद्र में दूबे रहते हैं।

किस बात का घमंड करते हो, यहां आप ही आखरी नहीं हैं,
सब समय का खेल है कोई कभी राजा है तो कभी भिखारी है।
न भरो अपनी जेब बेईमानी की दौलत से,
क्योंकि मौत की चादर तो विना जेब की होती है।

© देव नेगी

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!!!! हिन्द!!!!

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Monday, July 21, 2014

जानिए महा मृत्‍युंजय मंत्र का सम्पूर्ण अर्थ

-^-ॐ नम: शिवाय: -^-


महा मृत्‍युंजय मंत्र का अर्थ :-

शिव को मृत्युंजय के रूप में समर्पित महान मंत्र ऋग्वेद में पाया जाता है.
इसे मृत्यु पर विजय पाने वाला महा मृत्युंजय मंत्र कहा जाता है. इस मंत्र के कई नाम और रूप हैं. इसे शिव के उग्र पहलू की ओर संकेत करते हुए रुद्र मंत्र कहा जाता है; शिव के तीन आँखों की ओर इशारा करते हुए त्रयंबकम मंत्र, और इसे कभी कभी मृत-संजीवनी मंत्र के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह कठोर तपस्या पूरी करने के बाद पुरातन ऋषि शुक्र को प्रदान की गई "जीवन बहाल" करने वाली विद्या का एक घटक है.
ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मंत्र को वेद का ह्रदय कहा है. चिंतन और ध्यान के लिए 
इस्तेमाल किए जाने वाले अनेक मंत्रों में गायत्री मंत्र के साथ इस मंत्र का सर्वोच्च स्थान है.|

महा मृत्युंजय मंत्र का अक्षरशः अर्थ
  • त्रयंबकम = त्रि-नेत्रों वाला (कर्मकारक)
  • यजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय
  • सुगंधिम= मीठी महक वाला, सुगंधित (कर्मकारक)
  • पुष्टि = एक सुपोषित स्थिति,फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता
  • वर्धनम = वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन, सुख में) वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है, और स्वास्थ्य प्रदान करता है, एक अच्छा माली
  • उर्वारुकम= ककड़ी (कर्मकारक)
  • इव= जैसे, इस तरह
  • बंधना= तना (लौकी का); ("तने से" पंचम विभक्ति - वास्तव में समाप्ति -द से अधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न/अनुस्वार में परिवर्तित होती है)
  • मृत्युर = मृत्यु से
  • मुक्षिया = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें
  • मा= न
  • अमृतात= अमरता, मोक्ष  

महामृत्युंजय मंत्र का प्रभाव
बड़ी तपस्या से ऋषि मृकण्ड के पुत्र हुआ। कितु ज्योतिर्विदों ने उस शिशु के लक्षण देखकर ऋषि के हर्ष को चिंता में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने कहा यह बालक अल्पायु है। इसकी आयु केवल बारह वर्ष है। मृकण्ड ऋषि ने अपनी पत्नी को आश्वत किया-देवी, चिंता मत करो। विधाता जीव के कर्मानुसार ही आयु दे सकते हैं, कितु मेरे स्वामी समर्थ हैं। भाग्यलिपि को स्वेच्छानुसार परिवर्तित कर देना भगवान शिव के लिए विनोद मात्र है। ऋषि मृकण्ड के पुत्र मार्कण्डेय बढऩे लगे। शैशव बीता और कुमारावस्था के प्रारंभ में ही पिता ने उन्हें शिव मंत्र की दीक्षा तथा शिवार्चना की शिक्षा दी। पुत्र को उसका भविष्य बता•र समझा दिया कि पुरारि ही उसे मृत्यु से बचा सकते हैं। माता-पिता तो दिन गिन रहे थे। बारह वर्ष आज पूरे होंगे। मार्कण्डेय मंदिर में बैठे थे। रात्रि से ही और उन्होंने मृत्युंजय मंत्र की शरण ले रखी है- त्र्यम्बक यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धन्म। उर्वारुकमिव बन्धनामृत्येर्मुक्षीय मामृतात्। सप्रणव बीजत्रय-सम्पुटित महामृत्युंजय मंत्र चल रहा था। काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। यमराज के दूत समय पर आए और संयमनी लौट गए। उन्होंने अपने स्वामी यमराज से जाकर निवेदन किया- हम मार्•ण्डेय तक पहुंचने का साहस नहीं पाए। इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड को पुत्र को मैं स्वयं लाऊंगा। दण्डधर यमराज जी महिषारूढ़ हुए और क्षण भर में मार्कण्डेय के पास पहुंच गए। बालक मार्कण्डेय ने उन कज्जल कृष्ण, रक्तनेत्र पाशधारी को देखा तो सम्मुख की लिंगमूर्ति से लिपट गया। हुम्, एक अद्भुत अपूर्व हुंकार और मंदिर, दिशाएं जैसे प्रचण्ड प्रकाश से चकाचौंथ हो गईं। शिवलिंग से तेजोमय त्रिनेत्र गंगाधर चन्द्रशेखर प्रकट हो गए थे और उन्होंने त्रिशूल उठा लिया था और यमराज से कहा कि तुम मेरे आश्रित पर पाश उठाने का साहस केसे करते हो?। यमराज ने डांट पडऩे से पूर्व ही हाथ जोडक़र मस्तक झुका लिया था और कहा कि मैं आप का सेवक हूं। कर्मानुसार जीव को इस लोक से ले जाने का निष्ठुर कार्य प्रभु ने इस सेवक को दिया है। भगवान चंद्रशेखर ने कहा कि यह संयमनी नहीं जाएगा। इसे मैंने अमरत्व दिया है। मृत्युंजय प्रभु की आज्ञा को यमराज अस्वीकार केसे कर सकते थे? यमराज खाली हाथ लौट गए। मार्कण्डेय ने यह देख लिया। उर्वारु•मिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। वृन्तच्युत खरबूजे के समान मृत्यु के बन्धन से छुड़ाकर मुझे अमृतत्व प्रदान करें। मंत्र के द्वारा चाहा गया वरदान उस का सम्पूर्ण रूप से उसी समय मार्कण्डेय को प्राप्त हो गया। भाग्यलेख-वह औरों के लिए अमित होगा, कितु आशुतोष के आश्रितों के लिए भाग्येलख क्या? भगवान ब्रह्मा भाग्यविधाता स्वयं भगवती पार्वती से कहते हैं- बावरो रावरो नाह भवानी।

|महा मृत्‍युंजय मंत्र || ||महा मृत्‍युंजय मंत्र ||

ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्‍बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्‍धनान् मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ !!

||महा मृत्‍युंजय मंत्र का अर्थ || समस्‍त संसार के पालनहार, तीन नेत्र वाले शिव की हम अराधना करते हैं। विश्‍व में सुरभि फैलाने वाले भगवान शिव मृत्‍यु न कि मोक्ष से हमें मुक्ति दिलाएं।

महामृत्युंजय मंत्र के वर्णो (अक्षरों) का अर्थ महामृत्युंघजय मंत्र के वर्ण पद वाक्यक चरण आधी ऋचा और सम्पुतर्ण ऋचा-इन छ: अंगों के अलग-अलग अभिप्राय हैं।
ओम त्र्यंबकम् मंत्र के 33 अक्षर हैं जो महर्षि वशिष्ठर के अनुसार 33 देवताआं के घोतक हैं। उन तैंतीस देवताओं में 8 वसु 11 रुद्र और 12 आदित्यठ 1 प्रजापति तथा 1 षटकार हैं। इन तैंतीस देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ महामृत्युंजय मंत्र से निहीत होती है जिससे महा महामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी दीर्घायु तो प्राप्त करता ही हैं । साथ ही वह नीरोग, ऐश्व‍र्य युक्ता धनवान भी होता है । महामृत्युंरजय का पाठ करने वाला प्राणी हर दृष्टि से सुखी एवम समृध्दिशाली होता है । भगवान शिव की अमृतमययी कृपा उस निरन्तंर बरसती रहती है।
त्रि – ध्रववसु प्राण का घोतक है जो सिर में स्थित है।
यम – अध्ववरसु प्राण का घोतक है, जो मुख में स्थित है।
ब – सोम वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण कर्ण में स्थित है।
कम – जल वसु देवता का घोतक है, जो वाम कर्ण में स्थित है।
य – वायु वसु का घोतक है, जो दक्षिण बाहु में स्थित है।
जा- अग्नि वसु का घोतक है, जो बाम बाहु में स्थित है।
म – प्रत्युवष वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण बाहु के मध्य में स्थित है।
हे – प्रयास वसु मणिबन्धत में स्थित है।
सु -वीरभद्र रुद्र प्राण का बोधक है। दक्षिण हस्त के अंगुलि के मुल में स्थित है।
ग -शुम्भ् रुद्र का घोतक है दक्षिणहस्त् अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
न्धिम् -गिरीश रुद्र शक्ति का मुल घोतक है। बायें हाथ के मूल में स्थित है।
पु- अजैक पात रुद्र शक्ति का घोतक है। बाम हस्तह के मध्य भाग में स्थित है।
ष्टि – अहर्बुध्य्त् रुद्र का घोतक है, बाम हस्त के मणिबन्धा में स्थित है।
व – पिनाकी रुद्र प्राण का घोतक है। बायें हाथ की अंगुलि के मुल में स्थित है।
र्ध – भवानीश्वपर रुद्र का घोतक है, बाम हस्त अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
नम् – कपाली रुद्र का घोतक है । उरु मूल में स्थित है।
उ- दिक्पति रुद्र का घोतक है । यक्ष जानु में स्थित है।
र्वा – स्था णु रुद्र का घोतक है जो यक्ष गुल्फ् में स्थित है।
रु – भर्ग रुद्र का घोतक है, जो चक्ष पादांगुलि मूल में स्थित है।
क – धाता आदित्यद का घोतक है जो यक्ष पादांगुलियों के अग्र भाग में स्थित है।
मि – अर्यमा आदित्यद का घोतक है जो वाम उरु मूल में स्थित है।
व – मित्र आदित्यद का घोतक है जो वाम जानु में स्थित है।
ब – वरुणादित्या का बोधक है जो वाम गुल्फा में स्थित है।
न्धा – अंशु आदित्यद का घोतक है । वाम पादंगुलि के मुल में स्थित है।
नात् – भगादित्यअ का बोधक है । वाम पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में स्थित है।
मृ – विवस्व्न (सुर्य) का घोतक है जो दक्ष पार्श्वि में स्थित है।
र्त्यो् – दन्दाददित्य् का बोधक है । वाम पार्श्वि भाग में स्थित है।
मु – पूषादित्यं का बोधक है । पृष्ठै भगा में स्थित है ।
क्षी – पर्जन्य् आदित्यय का घोतक है । नाभि स्थिल में स्थित है।
य – त्वणष्टान आदित्यध का बोधक है । गुहय भाग में स्थित है।
मां – विष्णुय आदित्यय का घोतक है यह शक्ति स्व्रुप दोनों भुजाओं में स्थित है।
मृ – प्रजापति का घोतक है जो कंठ भाग में स्थित है।
तात् – अमित वषट्कार का घोतक है जो हदय प्रदेश में स्थित है।
उपर वर्णन किये स्थानों पर उपरोक्तध देवता, वसु आदित्य आदि अपनी सम्पुर्ण शक्तियों सहित विराजत हैं । जो प्राणी श्रध्दा सहित महामृत्युजय मंत्र का पाठ करता है उसके शरीर के अंग – अंग ( जहां के जो देवता या वसु अथवा आदित्यप हैं ) उनकी रक्षा होती है ।

मंत्रगत पदों की शक्तियॉं जिस प्रकार मंत्रा में अलग अलग वर्णो (अक्षरों ) की शक्तियाँ हैं । उसी प्रकार अलग – अल पदों की भी शक्तियॉं है।
त्र्यम्‍‍बकम् – त्रैलोक्यक शक्ति का बोध कराता है जो सिर में स्थित है।
यजा- सुगन्धात शक्ति का घोतक है जो ललाट में स्थित है ।
महे- माया शक्ति का द्योतक है जो कानों में स्थित है।
सुगन्धिम् – सुगन्धि शक्ति का द्योतक है जो नासिका (नाक) में स्थित है।
पुष्टि – पुरन्दिरी शकित का द्योतक है जो मुख में स्थित है।
वर्धनम – वंशकरी शक्ति का द्योतक है जो कंठ में स्थित है ।
उर्वा – ऊर्ध्देक शक्ति का द्योतक है जो ह्रदय में स्थित है ।
रुक – रुक्तदवती शक्ति का द्योतक है जो नाभि में स्थित है।
मिव रुक्मावती शक्ति का बोध कराता है जो कटि भाग में स्थित है ।
बन्धानात् – बर्बरी शक्ति का द्योतक है जो गुह्य भाग में स्थित है ।
मृत्यो: – मन्त्र्वती शक्ति का द्योतक है जो उरुव्दंय में स्थित है।
मुक्षीय – मुक्तिकरी शक्तिक का द्योतक है जो जानुव्दओय में स्थित है ।
मा – माशकिक्तत सहित महाकालेश का बोधक है जो दोंनों जंघाओ में स्थित है ।
अमृतात – अमृतवती शक्तिका द्योतक है जो पैरो के तलुओं में स्थित है।
महामृत्युजय प्रयोग के लाभ
कलौकलिमल ध्वंयस सर्वपाप हरं शिवम् ।
येर्चयन्ति नरा नित्यं तेपिवन्द्या यथा शिवम्।।
स्वयं यजनित चद्देव मुत्तेमा स्द्गरात्मवजै:।
मध्यचमा ये भवेद मृत्यैतरधमा साधन क्रिया।।
देव पूजा विहीनो य: स नरा नरकं व्रजेत ।
यदा कथंचिद् देवार्चा विधेया श्रध्दायान्वित ।।
जन्मचतारात्र्यौ रगोन्मृदत्युतच्चैरव विनाशयेत् ।
कलियुग में केवल शिवजी की पूजा फल देने वाली है । समस्तं पापं एवम् दु:ख भय शोक आदि का हरण करने के लिए महामृत्युजय की विधि ही श्रेष्ठ है। निम्निलिखित प्रयोजनों में महामृत्युजंय का पाठ करना महान लाभकारी एवम् कल्याणकारी होता है।
(स्रोत  : विकिपीडिया )
     

  देव नेगी 

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Tuesday, June 10, 2014

"समाज सेवा का यह नतीजा' ??

    

            "समाज सेवा का यह नतीजा' ?? पढ़िए शान्ति सजवाण की व्यथा..!!


दोपहर के लगभग दो बज रहे थे, दिनांक ७ जून,  दिन शनिवार ! दफ्तर की छुट्टी होने के कारण में घर पर आराम फरमा रहा था, तभी अचानक मेरे फोन की घटीं बजी, कुछ समय बाद मैंने फोन उठाया, सामने से हमारे बढे एवं सम्मानीय भाई श्री गोकुल नेगी जी की आवाज सुनाई दी, उनके स्वर थोड़े व्याकुलता के भरे हुए थे, मैंने पूछा ददा क्या बात है, उन्होंने जो बताया उसको सुन कर में दंग रह गया !! उन्होंने बताया की एक बुरी खबर है बुल्ला ,  मैंने फिर  पूछा बताओ ददा क्या हुआ.. .. फिर उन्होंने बताया  कि  जंतर – मंतर (नई दिल्ली) पर “गौ रक्षा” आन्दोलन के लिए धरने पर बैठी समाज सेविका शान्ति सजवाण पर गत  ६ जून को आत्मा घाती हमला हुआ है, और वह राम मनोहर लोहिया अस्पताल नई दिल्ली में भर्ती है !
अचानक  यह सुनने में थोडा अजीब सा लग रहा था. क्योकि कुछ महिनों पहले ही उन्होंने हमारे साथ मिलकर “ नजफ़गढ़ की दामिनी “किरण नेगी” के लिए न्यायिक आन्दोलन में अपनी  सक्रिय भूमिका निभाई थी..!!  
यह सुनाने के बाद हम उनकी याद खबर करने अस्पताल पहुचें, वहां उनकी हालत देखी तो आंखें भर आयी, बहुत दयनीय स्थिति में वो ICU में थी, उनके सर पर बेरहमी से वार किया गया, जिससे उनके सर पर २२ टाके लगे,  एक हाथ पर भी बहुत चोट आई है..!
फिर हमने घटना की आँखों देखी जाननी चाही, वहाँ  पर  मौजूद लोगों की माने तो यह वाक्य दिल को दहला  देने वाला था, उनके अनुसार एक अपने को  रेप पीड़ित बताने वाली महिला (इस बात में कितनी सत्यता है  किसी को पता नहीं है कई लोग इस महिला को  फर्जी भी बता रहे है) जिसका नाम जसविंदर कौर है,  पिछले कई समय से जंतर मंतर पर धरने पर बैठी है,  जो पंजाब की रहने वाली है,  जिसने किसी पुलिस अधिकारी पर बलात्कार का आरोप लगाया हुआ है..! (जो मानसिक विकृति का शिकार है )
बस इतना सुनते ही हम इस बात की तह तक जाने और  सच्चाई जानने के लिए घटना स्थल (जंतर मंतर ) पर पहुचें और स्थानीय व्यापारियों और धरना करताओ से पूछा जो उस समय वहां मौजूद थे,
वहाँ के लोगो की मुह जुबानी  कुछ इस प्रकार थी : -
आरोपी महिला पंजाब की रहने वाली रेप पीडिता काफी समय से जंतर – मंतर पर धरना कर रही है, उसका व्यवहार शुरू से ही सबके प्रति  आक्रमक रहा है, चाहे कोई भी हो, कई बार धरकारियों से भी झड़प करती रहती थी, किसी को भी बे-मतलब की  गाली-ग्लोस करना, झगड़ा करना  इत्यादी, उसके लिए मामूली बात थी. इसी कारण स्थानीय लोग उससे दूर रहना पसंद करते थे, उस औरत के खिलाफ कई मामले चल रहे है, कई पुलिस केश चल रहे है, और भी कई बातें लोगो ने उसके बारे में बताया पर सबका व्याख्यान यहाँ करना मुस्किल होगा !
इसी के चलते शान्ति सजवाण भी जंतर – मंतर पर सामाजिक सेवा हेतु जाती रहती थी, इस बार वो “गौ रक्षा” के लिए शांति धरना प्रदर्शन कर रही थी, पर अचानक शाम को उस महिला ने शान्ति सजवाण के

ऊपर जानलेवा हमला कर दिया, लाठियों के सर पर वार करने लगी और गलियाँ देने लगी , बड़ी मुस्किल से आस पास के लोगों ने उसको पकड़ा और काबू में किया , नहीं तो शान्ति  की जान आज मुश्किल से ही बचती. |हैरान कर देने वाली बात तो यह थी की पास में पुलिस की तैनाती थी, पर पुलिस अपनी जगह से एक कदम भी नहीं हिले, जैसे उनको सांप सूघ गया था, कोई भी मदद करने के लिए नहीं आगे नहीं आये, और शान्ति बचाव की गुहार लगाते लगाते बेहोश हो गयी..! फिर भी पुलिस देखती रही, फिर किसी पत्रकार ने १०० नम्बर पर फोन किया और सहायता माँगी, शान्ति सजवाण के साथी जो वहां मौजूद थे उन्होंने किसी तरह उसे अस्पताल पहुंचाया जहाँ वो जिन्दगी के लिए जंग लड़ रही है .! और फिर भी उस महिला का  जी नहीं भरा और  वो शान्ति को मारने अस्पताल तक पहुँच गयी |
पिछले काफी समय से उस महिला ने कई लोगो पर इस प्रकार के हमले किए हैं , खुद शान्ति सजवाण पर पहले भी कई बार इस प्रकार के हमले कर चुकी है, जब उसके खिलाप कई मामले चल रहे है उसने कई बेकसूर लोगों के खिलाफ मान हानि का दावा किया है, फर्जी रेफ का आरोप लगाया हुआ है, बताया जा रहा है कि वह अकेली नहीं बल्कि उसके साथ पूरी गैंग है.. .. इस प्रकार के असमाजिक तत्व  खुल्लेआम कैसे घूम सकते है, कई लोगो के अनुसार उस महिला मानसिक स्थिति ठीक नहीं है, अगर यह सच है तो उसे आज तक क्यों आजादी है ? उसे किसी अस्पताल में मानसिक चिकित्सा हेतु क्यों नहीं ले जाया गया ?  इसी तरह अगर वो बारदात करती रही तो आम जनता की जिम्मेदारी किसकी होगी? सवाल इस बात का उठता है की प्रशासन एवं क़ानून व्यवस्था किसके लिए बनाई गयी है ? पुलिस ने महिला हिरासत में क्यों नहीं लिया ? पुलिस की जिम्मेदारी क्या है? जब जरूरत होती है तब  अपनी जिम्मेदारी से भागते क्यों है? पुलिस ने शान्ति को क्यों नहीं बचाया ? क्या वो वहां पर तमाशा देखने के लिए थी ? क्या तमाशे देखना ही इनकी जिम्मेदारी है? और इसी के लिए इनको तनख्वाह  मिलाती है? अब दूसरी बात एक तरफ तो हम महिलाओं की सुरक्षा की बात करते है, जो कि बहुत जरूरी है, यह बहुत अच्छी बात है ,  परन्तु जब एक महिला खुद दूसरों पर आत्मघाती हमला करती है, गालियाँ देती है,  ऐसे महिलाओं के लिए किस प्रकार के कदम उठाने चाहिए जिससे की इस प्रकार की हिंसा फिर न हो, क्या इसी बलबूते पर हम उसे नजरअंदाज करते जाए.. कि वो एक महिला है? गुनहगार कोई भी हो वो गुनहगार होता है, और उसकी सजा भी समान होनी चाहिए !

ज़रा सोचिए जो व्यक्ति समाज के लिए समर्पित है और सामाजिक कार्यों में अपना योगदान दे रहा है , अगर उस पर इस प्रकार  के जानलेवा हमले होंगे तो यह हमारे लिए और इस देश के लिए बहुत ही शर्मनाक एवं दुर्भाग्य की बात होगी ..!
अब वक्त है बदलने का .. चलो उठो अपनी जिम्मेदारियों को समझो, हम बदलेंगे तो जग बदलेगा ..!!


!!! सोचिए .!!

-© देव नेगी

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Tuesday, June 3, 2014

Must watch : Garhwali Pahadi Dhol, Damao (ढोल - दमाऊ ) Video by : - Dev Negi




This is never Seen Before,  Pure Uttarakhandi Folk Traditional Music (Taal) with  Dol, Damao & other instrumentals.
Dhol : Kamal Lal

The Video Taken & Uploaded  by Mr. Dev Negi, from Last Village of India "IRANI - JHENJI " District-  Chamoli, Uttarakhand, India. Enjoy the Video guys,  ...!!

(the Video captured by : Mobile Phone)


 ( for Dev Negi Photography plz visit https://www.flickr.com/photos/devnegi ) 

Please don't forget to leave your comments :)

Monday, March 31, 2014



विक्रम संवत अत्यन्त प्राचीन संवत हैं। साथ ही ये गणित की दृष्टि से अत्यन्त सुगम और सर्वथा ठीक हिसाब रखकर निश्चित किये गये हैं। नवीन संवत चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना होउसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम-से-कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी होंउनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिये। विक्रम संवत का प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। कालिदास इस महाराजा के एक रत्न माने जाते हैं। कहना नहीं होगा कि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन नहीं हुआ। भारत में भी महापुरुषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलायेलेकिन भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत है और महाराज विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋण कोचाहे वह जिस व्यक्ति का रहा होस्वयं देकर इसे चलाया है। इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की भाँति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं। यही बात तिथि तथा अंश (दिनांक) के सम्बन्ध में भी हैं वे भी सूर्य-चन्द्र की गति पर आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णत: वैज्ञानिक सत्यपर स्थित है।

शास्त्रों व शिलालेखों में :


१.  विक्रम संवत के उद्भव एवं प्रयोग के विषय में कुछ कहना मुश्किल है। यही बात शक संवत के विषय में भी है। किसी विक्रमादित्य राजा के विषय मेंजो ई. पू. 57 में थासन्देह प्रकट किए गए हैं। इस संवत का आरम्भगुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से (नवम्बरई. पू. 58) है और उत्तरी भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (अप्रैलई. पू. 58) से। बीता हुआ विक्रम वर्ष ईस्वी सन्+57 के बराबर है। कुछ आरम्भिक शिलालेखों में ये वर्ष कृत के नाम से आये हैं|

२.  विक्रम संवत् के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईसवी सन् 78 और कुछ लोग ईसवी सन् 544 में इसका प्रारम्भ मानते हैं। फारसी ग्रंथ कलितौ दिमनः में पंचतंत्र का एक पद्य शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्श का भाव उद्धृत है।

३.  विद्वानों ने सामान्यतः 'कृत संवतको 'विक्रम संवतका पूर्ववर्ती माना है। किन्तु 'कृतशब्द के प्रयोग की व्याख्या सन्तोषजनक नहीं की जा सकी है। कुछ शिलालेखों में मावल-गण का संवत उल्लिखित हैजैसे - नरवर्मा का मन्दसौर शिलालेख। 'कृतएवं 'मालवसंवत एक ही कहे गए हैंक्योंकि दोनों पूर्वी राजस्थान एवं पश्चिमी मालवा में प्रयोग में लाये गये हैं। कृत के 282 एवं 295 वर्ष तो मिलते हैं किन्तु मालव संवत के इतने प्राचीन शिलालेख नहीं मिलते। यह भी सम्भव है कि कृत नाम पुराना है और जब मालवों ने उसे अपना लिया तो वह 'मालव-गणाम्नातया 'मालव-गण-स्थितिके नाम से पुकारा जाने लगा। किन्तु यह कहा जा सकता है कि यदि कृत एवं मालव दोनों बाद में आने वाले विक्रम संवत की ओर ही संकेत करते हैंतो दोनों एक साथ ही लगभग एक सौ वर्षों तक प्रयोग में आते रहेक्योंकि हमें 480 कृत वर्ष एवं 461 मालव वर्ष प्राप्त होते हैं। यह मानना कठिन है कि कृत संवत का प्रयोग कृतयुग के आरम्भ से हुआ। यह सम्भव है कि 'कृतका वही अर्थ है जो 'सिद्धका है जैसे - 'कृतान्तका अर्थ है 'सिद्धान्तऔर यह संकेत करता है कि यह कुछ लोगों की सहमति से प्रतिष्ठापित हुआ है। 8वीं एवं 9वीं शती से विक्रम संवत का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है। संस्कृत के ज्योति:शास्त्रीय ग्रंथों में यह शक संवत से भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए यह सामान्यतः केवल संवत नाम से प्रयोग किया गया है। 'चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठके 'वेडरावे शिलालेखसे पता चलता है कि राजा ने शक संवत के स्थान पर 'चालुक्य विक्रम संवतचलायाजिसका प्रथम वर्ष था - 1076-77 ई.।

नव संवत्सर :


विक्रम संवत २०७१ का शुभारम्भ ३१ मार्च  सन् २०१४  को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा  को होगाइस  वर्ष को  हिन्दू धर्म के लोग नये  वर्ष के रूप में मनाते है |
पुराणों के अनुसार इसी तिथि से ब्रह्मा जी ने सृष्टि निर्माण किया थाइसलिए इस पावन तिथि को नव संवत्सर पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। भारतवर्ष में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव शृंगार किया जाता है। लोग नववर्ष का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके ज्योतिषाचार्य द्वारा नूतन वर्ष का संवत्सर फल सुनते हैं। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान आदि के द्वारा शुद्ध होकर हाथ में गंधअक्षतपुष्प और जल लेकर ओम भूर्भुव: स्व: संवत्सर- अधिपति आवाहयामि पूजयामि च” इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तथा नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्मा जी से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे भगवन! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाएं।नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्चनमकहींगजीरामिश्रीइमली और अजवायन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।

राष्ट्रीय संवत:


भारतवर्ष में इस समय देशी विदेशी मूल के अनेक संवतों का प्रचलन है किंतु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की द्दष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय संवत यदि कोई है तो वह विक्रम संवत ही है। आज से लगभग 2,068 वर्ष यानी 57 ईसा पूर्व में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से विक्रम संवत का भी आरम्भ हुआ था। प्राचीनकाल में नया संवत चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी लोगों को ऋण-मुक्त करना आवश्यक होता था। राजा विक्रमादित्य ने भी इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों का राज्यकोष से कर्ज़ चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया संवत चलाया। भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीनकाल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक नवरात्र का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्यतिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत राष्ट्र की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत राष्ट्र इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है। दरअसलभारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्यपराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञानसाहित्यकला संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धंवंतरि जैसे महान वैद्यवराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के कर्ज़ से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे।

राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान:


पिछले दो हज़ार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक द्दष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही। अंग्रेज़ी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा रामकृष्णबुद्धमहावीरगुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैंईस्वी संवत के अनुसार नहीं। विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठानये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता हैईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं।

अन्य काल गणनाएं:


ग्रेगेरियन (अंग्रेजी) कलेण्डर की काल गणना मात्र दो हजार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना 3582 वर्षरोम की2759 वर्ष यहूदी 5770 वर्षमिस्त्र की 28673 वर्षपारसी 198877 वर्ष तथा चीन की 96002307 वर्ष पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो हमारे ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 112 वर्ष है। जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गयी है। जिस प्रकार ईस्वी सम्वत् का सम्बन्ध ईसा जगत से है उसी प्रकार हिजरी सम्वत् का सम्बन्ध मुस्लिम जगत और हजरत मुहम्मद साहब से है। किन्तु विक्रमी सम्वत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृतिखगोल सिद्धांत व ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है।


टिप्पणी : यह लेख भिन्न जगहों से ली गयी जानकारी के आधार पर लिखा गया है !

धन्यवाद !!!

- देव नेगी


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