Thursday, April 18, 2013

बलि एक प्रथा या कुप्रथा :



अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिये किसी की हत्या करना..! जी हाँ ये सच है अपने स्वार्थ के लिये देवी देवताओं के नाम पर आज भी कई जगह बली दी जाती है .पुराने समय से यह धारणा रही है कि बलियों के जरिये देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है। कुछ रूढ़िवादी लोगों और समूहों के द्वारा समाज में इस प्रकार की भ्रांतियां फैला दी जाती हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि  एक निर्दोष  प्राणी की हत्या से कैसे ईश्वर  प्रसन्न हो सकते हैं, जबकि धरती का हर प्राणी ईश्वर  की ही देन है।  एक तरफ कहा जाता है कि हत्या करना पाप है और दूसरी तरफ अपने पापों और बुरे कर्मों के आड़ मे पाप पर पाप करते जाते है.  जब ईश्वर सबको जीवन प्रदान करता है तो हम कौन होते है किसी के जीवन को खतम करने वाले..?  कई मंदिरो मे आज भी कई बकरियों एवं बैसों की बली दी जाती है, कुछ रूढीवादी ख्यालात  वाले लोगों  की सोच के कारण निर्दोष जानवरों की हत्या की जाती है, पर क्यो..?? ये सोचने वाली बात है...!
कुछ लोगों ने इस पर अमल जरूर किया है और इसके विरुद्ध  आवाज भी उठाई और कई जगह ये सफल भी हुए, पर दु:ख  की बात यह है कि  कुछ लोगो की सोच अभी तब नये जमाने को दस्तक नहीं दे पायी.  इसी कारण कई जगह ये परम्परा के नाम पर बली प्रथा को प्रोत्साहित करते है.!!
वैसे तो बली प्रथा आज पूरे भारत में एक अभिशाप के रूप में उभरा हुआ है परन्तु कुछ राज्यों मे ज्यादा ही बली की परम्परा का प्रचलन है उनमे से एक राज्य है उत्तराखंड !! देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखण्ड में आज भी कई मंदिरो मे देवताओं के नाम पर  बली दी जाती है.
उत्तराखण्ड कें गढ़वाल एवं कुमांऊ क्षेत्रों में समान्तर रूप से बलि की प्रथा बहुत समय पहले से प्रचलित है. प्रम्पराओं एवं देवताओं के नाम पर की जाने वाली हत्या हर जगह अलग अलग रूप में होती  है. कहीं सामूहिक रूप के किया जाता है और कहीं व्यक्तिगत रूप से..!
गाँवो में दी जाने वाली बलि व्यक्तिगत रूप से परिवार के कुल देवता के लिए या भूत प्रेत आत्माओं के लिए  जाती है,.! . और सामूहिक रूप से दी जाने वाली बलि गाँव के देवता या स्थान देवता को दी जाती है. कहा जाता है अगर बलि नहीं हुई तो देवता संतुष्ट नहीं होगें. और नारज हो कर अपना प्रकोप मनुष्यों के जीवन मे डालेंगे. इससे बचने के लिए बलि दी जाती है.!
मेरी आज तक एक बात समझ में नहीं आयी जब लोग बली करते है तो सारा माँस खुद खा लेते है तो देवता क्या खाते है?? ये सोचने वाली बात है. एक बात और  सबसे पहले देवता गण माँसाहारी नहीं थे जितने भी माँसाहारी थे वो सब राक्षस गण थे तो क्या हम राक्षसों की पूजा करते है..? क्योंकि राक्षस गणो को ही मांस मदिरा चढाया जाता है.!  बात साफ है देवताओं के नाम पर खुद का शौक पूरा करना. नाम देवताओं का और राक्षस खुद बनना.. यानि कि जितने भी बलि होती है वो देवताओं के लिये नहीं बल्कि देवताओं के नाम पर खुद के लिए होती है.
उत्तराखंड में कई जगहों कर 8-9 दिन का प्रारम्परिक उत्सव मनाया जाता है इस उत्सव को भिन्न जगहों मे  अलग अलग  नामों से जाना जाता है.  गढ़वाल में कुछ हिस्सों मे इस उत्सव को अठवाडे़ (अठवार) के नाम से जाना जाता है क्योंकि ये 8 दिन का उत्सव होता है ये गढ़वाल एवं कुमांऊ दोनो क्षेत्रो मे होता है. इस उत्सव मे कई बकरे और अन्तिम दिन  नर भैसों की बली दी जाती है..!
प्रशासन द्वारा भी इसको रोकने की कई कोशिस की गई है पर प्रशासन भी अभी तक  नाकाम रहा है.
बलि प्रथा की सुर्खियों की वजह उत्तराखंड के बुनखल में हुई पशु बलि और इसे लेकर विरोध के स्वर कुछ इस कदर मुखर किए कि एक बार फिर यह कुरीति चर्चा का सबब बन बैठी । उत्तराखंड में कई ऐसे मेले और त्योहार हैं जिनमें बलि का चलन है । गढ़वाल एवं  कुमांऊ में आयोजित होने वाले अधिकांश मेले ऐसे ऐतिहासिक आख्यानों से भरे पड़े हैं । परम्परा  के मुताबिक इन आयोजनों में पशुओं की बलि देने का रिवाज है । ऐसा ही एक मेला बूंखाल मेला है । इस मेले में सैकड़ों बकरों समेत नर भैसों की जान शक्ति उपासना के नाम पर ली जाती है ।  जैसे पहले ही बता चुका हूँ कि गढ़वाल में मेलों को अठवाड़े के नाम से भी जाना जाता है ।  गढ़वाल में बलि प्रथा की बात की जाए तो अठवाड़े से ही इसका चलन शुरू होता है । हालांकि तमाम मेलों में प्रशासन द्वारा बलि प्रथा बंद करने की कोशिश की गयी है   लेकिन बूंखाल में यह क्रूर प्रथा आज भी कायम है । बीते साल सामाजिक संगठनों और प्रशासन की जद्दोजहद के बाद नब्बे नर भैसों और हजारों बकरों की बलि चढ़ाई गई थी । राज्य सरकार ने पशु बलि अवैध घोषित कर रखी है लेकिन इस मेले में इसे रोकने की अभी तक कोई सफल कोशिश दिखाई नहीं देती है । प्रशासन यह कहकर पल्ला झाड़ लेता है कि जनजागरण के प्रयास किए जा रहे हैं । धार्मिक प्रथा पर बलपूर्वक रोक नहीं लगाई जा सकती । कुछ   संस्थाओं ने इस क्रूर प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई है । इन्हीं के चलते मेला क्षेत्र में धारा 144 लागू करनी पड़ी जबकि ठीक इसके उलट एक प्रमुख दल ने पौड़ी के जिलाधिकारी को ज्ञापन देकर पशु क्रूरता कानून 1960 की धारा-28का हवाला देते हुए मेले में धारा-144 लगाए जाने को गैर कानूनी बताया । गौरतलब है कि धारा-28 के अंतर्गत धार्मिक अनुष्ठानों के लिए प्रतिबंधित पशुओं को छोड़ अन्य पशुओं की बलि कानूनन अपराध नहीं है ।
पर बलि क्यों..? क्या यह उचित है? क्या किसी की हत्या करना उचित है..? अगर कोइ किसी इंसान की हत्या करता है तो उसे जीवन कारवास या फाँसी की सजा का प्रावधान है किन्तु जानवरों की हत्या पर क्यों नही ? क्या वो प्राणी नही है क्या उनको जीने का हक नहीं है भगवान ने तो सबको एक समान जीवन एवं जीने का हक प्रदान किया है फिर ये भेद भाव क्यो?
उनकी हत्या इसलिये की जाती है क्योंकि वो मासूम गूंगे एवं लाचार है?? या वो प्रतिक्रिया देने मे असमर्थ है इसलिए?? पशु की हत्या करने वालो को सजा क्यों नही होती? जो एसे भेद भाव करे उसे इंसान कहते है..? क्या सच मे वो इंसान कहने लायक है? ये कैसा समाज  है जहाँ निर्दोष एवं लाचारों की बली दी जाती है और दोषियों की वह्हा वाही..! आखिर ये भेद भाव क्यों..? एसे विकृ्ति मानसिकता को क्या हम इंसानियत कह सकते है? ये बहुत बडी़ एवं गम्भीर सोचने वाली बात है..! आखिर कब तक निर्दोषों की बली होती रहेगी और हम एसे ही अपंगो की तरह हाथ पर हाथ धरे रहेगे..? सोचिये..!!
आइए सब मिल कर इस प्रथा को समाज से दूर करने का संकल्प लें.!!

धन्यवाद ..!!

© देव नेगी


!!!! हिन्द!!!!

Contact me at:-

dev1986@gmail.com
devlove1986@in.com
devnegi1986@yahoo.com

फोन :- +91 9990025918.

2 comments:

Jagmohan said...

Wonderful! It cracks the deep of social reform's heart of thought, although this on internet blog.

Jagmohan said...

Wonderful! It cracks the deep of social reform's heart of thought, although this on internet blog.